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कविता

हर त्यौहार ऐसे ही जाता है अब

अनिल पांडेय


माता जी जब शांत होती हो तुम
बढ़ती उम्र के अवसान पर पहुँच कर
अपने समय की गति को पहचानने की भूमिका में
उद्विग्न रहता हूँ मैं उस समय
यह जानने की कोशिश में
कैसे रहती हो तुम और कैसे जी लेता हूँ मैं
विसंगतियों से भरे जीवन में रहते हुए एक ही समय में

ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब तुम्हारी याद न आए
हो सकता है बहुत व्यस्त हो आज माते
ढूँढ़ी तिलवा और लेंड़ुवा को रूप देने में
कल खिचड़ी है उधर, इधर लोहड़ी मनाई जा रही है
डीजे के धुन पर नाचते युवा मस्त हैं
परिवार के सदस्य सब योजनाओं में पस्त हैं और
हाथ माथे रख बैठा हूँ तुम्हारे हाथ से तैयार ढोंढे खाने की जिद में

व्यस्तताओं के मंजर में यादों की वेदना है
बचपन की स्मृतियों को हर हाल में झेलना है
त्यौहार है आज, तुम नहीं हो न तुम्हारी हँसी है
एकांत है शोर है घनघोर बेबसी है
सब पूछ रहे हैं दिखाई नहीं दे रहा मैं कहाँ हूँ
ढूँढ़ता तुम्हें अनवरत माते न वहाँ हूँ न यहाँ हूँ
अच्छा नहीं लग रहा कुछ व्यथित हूँ जहाँ हूँ

सच कहूँ माते यह एक त्यौहार की बात नहीं है
हर त्यौहार ऐसे ही जाता है अब
सब हँसते हैं खुशियाँ मानते हैं गाते हैं नाचते हैं
मैं तलाशता हूँ शहर का एकांत
बैठ जाता हूँ चलते हुए भी नीरवता लिए शांत
देखता हूँ कोई कोना घर का
खाली हो कोई देखे न और बैठ रो लूँ अहक भर मैं

एक सच कहूँ माता जी, सुनो !
आँसू नहीं गिरते अब न ही आँखें भीगती हैं
रोता हूँ फिर भी हिचक-हिचक कर
हकला हकला कर उड़ेलता हूँ यादों के पिटारे
बच्चे सोचते हैं मैं उन्हें खेला रहा हूँ
पत्नी सोचती है मैं उसे चिढ़ा रहा हूँ
उन्हें क्या पता माँ से दूर होने का गम मैं भुला रहा हूँ


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